गुरु दत्त की आंखें: वी. के. मूर्ति – सिनेमाई रोशनी के पहले जादूगर

फिल्म बनाना एक बहुत बड़ी तकनीक है इसके पीछे बहुत से टेक्निशियन काम करते हैं तब जाकर कहीं पहन के ऊपर हम सबको दमदार हीरो खूबसूरत हीरोइन और बहुत से चित्र नजर आते हैं। इसके पीछे जो लोग काम करते हैं उनके बारे में बहुत ही कम लोगों को पता होता है और उनका रोल भी पहन के पीछे बहुत बड़ा होता है। उन्हीं की वजह से फिल्म में निखार आता है और लोगों को सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म का खूब आनंद भी उठाया जाता है। आज हम एक ऐसे सिनेमैटोग्राफर के बारे में बात करेंगे जिन्होंने बॉलीवुड में बहुत ही सुपरहिट फिल्में दी हैं अपनी तकनीक और मेहनत लगन के साथ उनका हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बड़ा योगदान रहा है।

📜 **बेसिक जानकारी (V. K. Murthy at a Glance):**

पूरा नाम: वेंकटराम पंडित कृष्णमूर्ति
जन्म: 26 नवम्बर 1923, मैसूर, मैसूर स्टेट (ब्रिटिश इंडिया)
निधन: 7 अप्रैल 2014 (उम्र 90 वर्ष), बेंगलुरु, भारत
  मुख्य लेख (Main Article):

अगर गुरु दत्त की फिल्में आत्मा हैं, तो वी. के. मूर्ति उनका दृश्य-रूप थीं। उन्होंने सिनेमा को सिर्फ फ्रेम में नहीं उतारा, बल्कि उसमें जान डाली। उन्होंने जिस तरह रोशनी और परछाई का इस्तेमाल किया, उसने उन्हें भारतीय सिनेमा का **पहला सिनेमैटिक कवि** बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम से सिनेमाई संग्राम तक

वी. के. मूर्ति का जीवन सिर्फ कैमरे तक सीमित नहीं था। वो स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। शायद इसी जुड़ाव ने उन्हें इंसान की पीड़ा, संघर्ष और अकेलेपन को इतनी खूबी से कैमरे में कैद करना सिखाया।

 गुरु दत्त और सिनेमास्कोप का इतिहास

1959 में जब कागज़ के फूल आई, तब मूर्ति भारत के पहले सिनेमैटोग्राफर बने, जिन्होंने सिनेमास्कोप फॉर्मेट में पूरी फिल्म शूट की। ये तकनीक न सिर्फ नई थी, बल्कि चुनौतीपूर्ण भी। मगर मूर्ति ने इसे इतने सुंदर ढंग से अंजाम दिया कि आज भी यह फिल्म क्लासिक मानी जाती है।

 विज़ुअल्स जो आज भी जिंदा हैं

प्यासा’ का वो दृश्य, जहां विजय (गुरु दत्त) अपनी मृत्युसभा में प्रवेश करता है, प्रकाश की फ्रेमिंग से ऐसा लगता है जैसे वो कोई शहीद हो।
कागज़ के फूल’ का दृश्य जिसमें निर्देशक सुरेश सिन्हा और उसकी प्रेरणा एक-दूसरे से दूर होते हैं – दर्द और सुंदरता की मिसाल।
साहब बीवी और गुलाम’ में मीना कुमारी का धीरे-धीरे खत्म होता किरदार – ये सब मूर्ति की लाइटिंग का कमाल था। सम्मान और अवॉर्ड

वी. के. मूर्ति को जीवन में कई पुरस्कार मिले, मगर 2008 में मिला दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड उनकी प्रतिभा की सबसे बड़ी सरकारी मान्यता थी। वे इस सम्मान को पाने वाले पहले सिनेमैटोग्राफर भी थे। ‘भारत एक खोज’ और ‘तमस’

श्याम बेनेगल के साथ उन्होंने दूरदर्शन के लिए ‘भारत एक खोज’ (1992) की सिनेमैटोग्राफी की, और गोविंद निहलानी के साथ ‘तमस’ (1988) के छह एपिसोड भी शूट किए।

 कुछ प्रमुख फिल्में:

* प्यासा (1957)
* कागज़ के फूल (1959)
* साहब बीवी और गुलाम (1962)
* चौदहवीं का चांद (1960)
* बाज़ी (1951)
* मिस्टर एंड मिसेज़ 55 (1955)
* सीआईडी (1956)
* पाकीज़ा (1972)
* रजिया सुल्तान (1983)
* तमस (1988)
* भारत एक खोज (1992)

वी. के. मूर्ति वो इंसान थे, जिन्होंने रोशनी और छाया के सहारे भावनाओं को दृश्य में बदला। उनके फ्रेम्स, एंगल्स, और लाइटिंग आज भी भारतीय सिनेमाटोग्राफी के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। जब तक गुरु दत्त की फिल्में जिंदा हैं, वी. के. मूर्ति की रूह सिनेमा के पर्दे पर रोशनी बनकर चमकती रहेगी।

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